रिखणीखाल। विरासत मे मिली सांस्कृति और परंपरा के धनी उतराखंड मे अब कुछ तीज त्योहारों का स्वरूप पूरी तरह से बदल रहा है। होली की भाँति दीपावली का त्योहार भी आज पूरी तरह से नये परिवेश मे ढल चुका है। गाँव थे तो खेत खलिहान और पशुधन भी जिससे गावों की रौनक बनी थी। हर घर मे पशु अर्थिकी का स्रोत रहे है और हर शुभ कार्य और पर्व की शुरुआत के चलते उनसे निकटता भी रही। लेकिन पलायन की मार का सबसे अधिक मार पशुधन पर ही पड़ी। अब बंजर पड़ते गावों मे न अब रंभाते पशु दिखते और न ही आबाद खेत खलिहान।
अब राज्य के दूर दराज के कुछ गांव ही है जहाँ पर बग्वाल की परंपरा दिख रही है। जनपद पौड़ी के रिखणीखाल ब्लॉक के सीमांत गाँव के ग्रामीण आज भी ” बग्वाल” की प्राचीन परम्परागत प्रथा को एक परिवार आगे बढ़ा रहा है। परंपरा के अनुसार ग्रामीण अपने पालतू मवेशियों( गाय,बैल बछिया ) आज के दिन एक खुले खेत में एक साथ खुला छोड़ देते हैं। ग्रामीण अपने अपने पशुओं के लिए विशेष भोजन के रूप में पकवान बनाते हैं जिसमें भात,मंडुवा के आटे की बाड़ी, उड़द दाल के पकोड़े, भरी दाल की रोटी, स्वाला ,भूडा आदि हैं। धूप दिया के साथ पूजा अर्चना और माथे पर चावल,हल्दी के तिलक की परंपरा है। सरसों का तेल से रंगे सींग और माला से श्रृंगार करने की प्रथा रही है। वहीं बकरियों के लिए जौ,नमक आदि का कुड़का परोसते हैं।
परंपरा का निर्वहन कर रहे ग्राम नावेतल्ली के औतार सिंह रावत 74 वर्षीय वृद्ध हैं। साथ में उनके साथ उनकी धर्मपत्नी,पुत्र व जुड़वा पोते हैं। वह इस आयोजन मे भावी पीढ़ी अपने पोतों को भी शरीक करते हैं जिसे परंपरा आगे बढे। रोशनी की चकाचौंध और पट्टाखों के शोर मे अब इस ओर कम ध्यान जाता हो, लेकिन सही मायनों मे यह परिवार संस्कृति और बग्वाल का संवाहक बना हुआ है।
सामाजिक कार्यकर्ता प्रभुपाल सिंह रावत का कहना है कि विलुप्त हो रही संस्कृति के लिए शहरी चकाचौंध तो है ही, इसके अलावा पलायन अधिक जिम्मेदार है। उन्नति के लिए पलायन ठीक है, लेकिन हम संस्कृति को लेकर भी सजग रहे तो अच्छा है, क्योंकि यह हम जड़ो से जुड़े रहने का अहसास दिलाता है।