देहरादून/रखणीखाल। लुप्त हो रही संस्कृति के बीच राज्य के कुछ एक क्षेत्रों के इक्के दुक्के गांवों मे गोठ रखने की परम्परा का निर्वहन हो रहा है। पलायन के चलते अब गांव खाली हो गए तो पशुपालन पर भी इसका असर पड़ा है। बरसात से पहले पशु पालक अपने मवेशियों के साथ रात्रि मे अस्थायी हल्के टीन शेड या अन्य संसाधनो से बने और बाँस की सुरक्षा दीवार मे रहते थे। इससे खेत भी उपजाऊ होते थे और मवेशी भी खुले मे रहते थे। लेकिन, अब यह तस्वीरें दुर्लभ ही है।
जनपद पौड़ी गढ़वाल के रिखणीखाल स्थित डबराड़ एक ऐसा अकेला गाँव है,जहाँ के कुछ ग्रामीण व अपने मवेशियों (गाय,बैल,बकरी) को गोठ में बाँधते आ रहे हैं। कोटड़ी सैण से 4 किमी दूर एक ऊँची पहाड़ी पर बसा यह गाँव डबराड है जहाँ पशुपालक स्थिर गोठ में पशुओं को इस बरसात के मौसम में बाहर रखते हैं जिसे अपनी स्थानीय भाषा में ग्वाड़ कहते हैं।
गाँव के सुरेन्द्रपाल सिंह रावत के यहां दादा परदादा के समय से गोठ बनती रही है। रात मे मवेशियों की रखवाली के लिए इनके पिता रात को गोठ में रहते हैं। इससे खेत के लिए खाद की आपूर्ति हो जाती है। गोठ बनाने के लिए गोठ बनाने के लिए बांस,छैडी,मालू के पत्ते,स्योलू (भीमल की रस्सी) की का उपयोग होता रहा है जिसे स्थानीय भाषा मे छप्पर ( फडिका) कहा जाता है। आसपास के गांवों में ये गोठ की प्रथा लगभग बन्द होने के कगार पर है। गोठ में मवेशियों को मच्छर कीड़े मकोडे आदि से बचाव के लिए जलती लकड़ी और धुंआ भी किया जाता है। वहीं
मवेशियों की सुरक्षा व जंगली जानवरों से बचाव के लिए बांस की बनी चाहरदीवारी (टान्टा) लगायी जाती है।जिससे गुलदार,भालू आदि जानवर एकदम धावा न बोल सकें। गोठ आमतौर पर बरसात के सीजन में ही बनाते हैं।अब ये प्रथा भले ही अजीबो-गरीब लगती हो, लेकिन इससे पहले बीस पच्चीस साल पहले हर गाँव में सब जगह यही प्रथा थी,जो हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है।
सामाजिक कार्यकर्ता प्रभुपाल सिंह का कहना है कि पशुपालक बरसात शुरू होने के बाद अपने दैनिक कार्यो के साथ ही गोठ मे रहते थे। इससे खेती और दुग्ध उत्पाद के साथ उनकी आजीविका बेहतर चलती रही। कृत्रिम खाद की अपेक्षा शुद्ध जैविक खाद से मिले वाला अनाज भी मिलता था। अब यह सब बीती बात हो गयी है।